Pahadi suvidha

पहाड़ में ब्योली (दुल्हन) खोजना बड़ी समस्या बन गई है | | Finding a Bride has become a big problem in the Mountains.

आखिर पहाड़ में  ब्योली (दुल्हन) खोजना एक बड़ी समस्या बन गई है, जिसके लिए ना तो सीधे तौर पर सरकार जिम्मेदार है, और ना ही हर मुश्किल का सदाबहार बहाना ! पहाड़ का दुर्गम भूगोल तो फिर क्या है ? इस समस्या का कारण ! चलिए थोड़ा विस्तार से समझते हैं

पहाड़ी सुविधा के माध्यम से उत्तराखंड की पहाड़ी गांव में विवाह योग्य लड़कों को सात फेरों के लिए लड़की नहीं मिलना इस दौर में हमारे समाज का कड़वा सच है गांव दर गांव अब बैचलर क्लब में शामिल लड़कों की संख्या बढ़ती जा रही हैआम तौर पर पहाड़ी गांव में किसी भी तरह के छोटे बड़े रोजगार पर लगे लड़कों की शादी पहले 25 से 28 साल के बीच हो ही जाती थी, लेकिन अब बैचलर क्लब की औसत आयु 35 से 40 साल के बीच जा पहुंची है

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

आखिर क्या डिमांड है लड़की पक्ष की 

अगर आपकी सरकारी नौकरी नहीं है और मकान शहरी क्षेत्रों में नहीं है तो रिश्ता मिलना पहाड़ी युवाओ कि लिए बहुत मुश्किल हो जाता है पहाड़ी गांव में लड़के पक्ष की शिकायत अब आम हो चुकी है की लड़के वाले रिश्ते पर हामी भरने से पहले देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, हल्द्वानी, रामनगर या काशीपुर जैसे किसी मैदानी शहर में मकान और लड़के की सरकारी नौकरी की अनिवार्य शर्त जोड़ रही है, इस कारण क्वालीफाइंग मार्क्स को पूरा नहीं कर पाने वाले लड़कों के सामने जीवनसाथी प्राप्त करने के अवसर बेहद सीमित होते जा रहे हैं

गांव के लड़कों के पास भैजी की बारात में डांस करने के मौके दिनों दिन कम होते जा रहे हैं आप किसी भी गांव में एक्साम्पल सर्वे करा के देख लीजिये ये कड़वा सच सामने आ जाएगा हर गांव में तीज पार के ऐसे चार पांच लड़के तो मिल ही जाएंगे बल्कि कुछ गांव में यह संख्या दर्जनों में भी हो सकती है

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पहाडी लडको के साथ-साथ अभिभावकों की पीड़ा 

पहाड़ो में विवाह योग्य युवाओ की  उम्र 28 – 32 साल से ऊपर हो चुकी है, लेकिन लड़की पक्ष की डिमांड कुछ अलग ही है । पहाडो पर कुछ युवा वर्ग के लोग बेहद सामान्य या कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से निकलकर खुद के पैरों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहे हैं अभी तो वो जीवन पथ पर पहला कदम ही रख रहे हैं, जिनमें उनके सामने इतनी मुश्किल शर्त रखी जा रही है इस शर्त के आगे बाकी और कोई गुड़ मायने नहीं रखता है और यह पीड़ा सिर्फ लड़कों की ही नहीं है

जहाँ विवाह योग्य लड़कों के पिताओ का दर्द है कि पहाड़ों में आज कल लड़कियां है ! ऐसे नहीं की नहीं है, लेकिन लड़कियो की डिमांड इतनी ज्यादा हो गई हैं जिसे पूरा करना एक मध्यम वर्ग के पिता की बस की बात नहीं हो पा रही है और अगर लड़की मिल भी गयी तो लड़कियों की भी गारंटी नहीं है, क्योंकि वो पहाड़ में रहना चाहती ही नहीं है पहले पहले शादी या रिश्तेदारी में होती थी रिश्तेदार रिश्तेदारी से ही वो लड़की ढूंढ लेते थे

रिश्तेदारी से ही विवाह योग्य लड़कों के लिए अच्छे रिश्ते आ जाते थे एक तरह से उनके पास कई चॉइस होती थी खानदान और लड़की के व्यवहार के साथ ही जन्मकुंडली में 36 गुणों से मिलान के बाद ही रिश्ता तय किया जाता था लेकिन अब हालात एकदम निकट है लड़के वाले बेटे के हाथ पीले करने के लिए गांव दर गांव भटक रहे हैं और बात मुश्किल से ही बन पा रही है

पहले आर्थिक रूप से कमजोर लड़की पक्ष को बेटे की शादी की चिंता सताती थी अब यही चिंता औसत या कमजोर आर्थिक वाले लड़के पक्ष के हिस्से में आ गई है पढ़ी लिखी बेटियां अब खुद भी अपनी पसंद ज़ाहिर कर रही है और परिवार इसे स्वीकार भी कर रहे हैकुछ मामलों में तो जातीय और सामाजिक बंधन भी टूट रहे हैं गौर से देखा जाए तो ये खराब लिंगानुपातएक मोड़ पर आकर लड़कियों के हक में ही जा रहा है स्थानीय लोगों ने पहाड़ी सुविधा  को बताया कि अपने बेटों की शादी के लिए वे कई सारे प्रयास कर चुके है लेकिन कहीं भी बात नहीं पहुँच पा रही है

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युवा महिलाये शहरी जीवन को पसंद कर रही है

लड़की पक्ष वाले शहरों में मकान फ्लैट या सरकारी नौकरी वालों को प्राथमिकता दे रहे हैं, लेकिन गौर से देखें तो यह समस्या सिर्फ गांव में रहने वाले परिवारों तक भी सीमित नहीं है शहरों में बसे पहाड़ी समाज तक गयी इसकी जड़ें फैली हुई है सामान्य तौर पर कोई भी समुदाय अपने समाज संस्कृति परिवेश में ही नाते रिश्तेदारी बनाना पसंद करता है इस कारण विवाह योगी लड़कियों का अकाल शहरों में बसे और अच्छी खासी नौकरी करने वाले पहाड़ी लड़कों के सामने भी हैहालांकि शहरों में बसे प्रवासी युवाओं के पास फिर भी गांव में रहते हुए शहरी चकाचौंध का सपना देख रही लड़की मिलने की कुछ संभावना है, साथ ही अब बड़े पैमाने पर इंटर कास्ट मैरिज से भी शहरी युवा अपनी गृहस्थी बसा रहे हैं, 

90 वाले दशक के बाद पैदा हुए लड़के ही अब इस असंतुलन की मार झेल रहे हैं

इसकी वजह तलाशने के लिए हमें बेटे की चाह में बेटियों को कोख में कतल करने वाले स्याह सच को होगी स्वीकार करना होगा ये असंतुलन समाज ने ही पैदा किया है खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद यह बिमारी तेजी से फैल रही है इस तरह 90 वाले दशक के बाद पैदा हुए लड़के ही अब इस असंतुलन की मार झेल रहे हैं। 

राज्य गठन के समय उत्तराखंड का लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 964 महिलाओं का था इसके बाद लिंगानुपात में और गिरावट दर्ज होती चली गई टाइम्स ऑफ इंडिया में 26 सितंबर 2022 को प्रकाशित खबर में रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम स्टैटिस्टिकल रिपोर्ट 2020 के हवाले से कहा गया कि 21 वीं सदी के दूसरे दशक तक उत्तराखंड में बाल लिंगानुपात प्रति 1000 लड़कों पर 844 लड़कियों का पहुँच चुका था जो देश में सबसे खराब आंकड़ा है। 

 इस दौरान उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में तो यह आंकड़ा 821 तक के शर्मनाक स्तर पर भी गया जबकि इसी दौरान देश में औसत बाल लिंगानुपात तीन अंकों के साथ सुधरते हुए 907 पर पहुँच गया था हालांकि बाद में राज्य सरकार ने इन आंकड़ों को पुराना बताते हुए दावा किया था कि इस दौरान राज्य में लिंगानुपात 1000 लड़कों पर 939 लड़कियां पैदा हुई

शादियों के इस सीज़न में गांव दर गांव फंसते सन्नाटे के पीछे भी ये एक अहम वजह हो सकती है हालांकि इसकी कुछ अन्य वजह भी है जिसकी तरफ गढ़वाल यूनिवर्सिटी के राजनीतिक शास्त्र के प्रोफेसर एमएम सेमवाल इशारा करती हैं वो बताते हैं कि शादियों में आ रही इस समस्या के पीछे कोई एक मात्र सीधा कारक नहीं बल्कि कई कारक हैं पहाड़ों में स्वास्थ्य की स्थिति भी इनमें से एक है विशेष तौर से महिला रोगों के लिए पहाड़ में डॉक्टरों का अभाव भी इसका एक कारण है

आये दिन के अखबार ऐसी खबरों से पटे पड़े हैं जहाँ खराब व्यवस्था के अभाव में किसी गर्भवती महिला ने दम तोड़ दिया पहाड़ों में जब गर्भवती महिलाओं के लिए इतनी कठिनाई हो तो कोई भी लड़की पहाड़ में क्यों ही जाना चाहेगीऔर पहाड़ी जीवन की ये कठिनाई सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है प्रोफेसर सेमवाल बताते हैं कि बीते कुछ दशकों में पहाड़ में लड़कियों की शिक्षा में भी काफी सुधार हुआ है

अब कोई भी पढ़ी लिखी लड़की पहाड़ की कठिन दिनचर्या जिसमें घास लाने से लेकर गोबर उठाने तक शामिल हैंऐसा जीवन नहीं चुनना चाहती हूँ इस पहलू पर राज्य आंदोलन में शामिल रहे प्रोफेसर एसपी सती भी ज़ोर देते हुए बताते हैं कि पहाड़ों का जीवन हमेशा से महिला केंद्रित रहा है विशेष तौर से खेती से लेकर पूरे घर की जिम्मेदारी एकतरफा महिलाओं के कंधों पर रही पहाड़ में पुरुष पहले से ही नौकरियों के लिए बाहर जाते रहे हैं और घर में बूढ़े अभिभावकों से लेकर बच्चों मवेशियों और खेती तक की जिम्मेदारी बहू की ही रही है किसने पहाड़ की महिलाओं का जीवन हमेशा से पहाड़ जैसा ही कठिन बनाए रखा हैऐसे में देहरादून या मैदानी इलाकों की ओर पलायन करना महिलाओं के लिए मुक्ति का द्वार खुलने जैसा भी है। 

यह भी एक बड़ा कारण हैलड़कियां अब पहाड़ों की जगह मैदानी इलाकों में रहने को प्राथमिकता दे रही है अब सवाल यह भी है कि अधेड़ कुंवारों का ये गम क्या उनका निजी मामला बनकर रह जाएगा या इसके कुछ व्यापक सामाजिक खतरे भी हो सकते हैं ?

हमारा उद्देश्य किसी तरह की सनसनी पैदा करने या इस मुददे को अतिशयोक्ति तक ले जाना नहीं है लेकिन बढ़ते अविवाहित पुरुषों की संख्या से किस तरह की विसंगतियो पैदा हो सकती है इसका एक परिदृश्य उत्तराखंड से सटे वेस्ट यूपी के देहातों में देखा जा सकता है वेस्ट यूपी में क्योंकि आर्थिक तरक्की उत्तराखंड के पहाड़ों से पहले पहुंची तो, गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग की जांच वाली बिमारी भी वहाँ हम से पहले पहुँच चुकी थीइस कारण लिंगानुपात वहाँ भी गडबड हुआ धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि वह ऐसे परिवार बढ़ने लगे जिनमें कोई एक पुरुष सदस्य अविवाहित ही रह जाता था। 

हालांकि वहाँ भी इसके कई कारण थे, जिनमें से जमीन को बंटवारे से बचाना भी एक प्रमुख कारण था लेकिन अविवाहित अधेड़ों की बढ़ती संख्या ने वहाँ नई तरह की समस्याएं पैदा कर दी

साल 1999 में इंडिया टुडे पत्रिका ने इस पर विस्तृत रिपोर्ट की थीजिसमें जिक्र मिलता है कि तब अधेड़ उम्र के इन अविवाहितों को रणवां कहा जाने लगा था और वहाँ के पुलिस थानों में बकायदा एक रेजिस्टर्ड अलग से बनने लगा था जिसमें इनके नाम दर्ज किए जाते थे इसमें रजिस्टर को पुलिसिया भाषा में भी रजिस्टर ही कहा जाता था और इसमें ऐसे अविवाहित अधेड़ों के साथ होने वाले अपराधों का अलग से विवरण दर्ज होता था अब कई जानकार इस बात को लेकर चेता रहे हैं कि कहीं पहाड़ों में भी ऐसे रजिस्टर बनाने की नौबत ना आ जाए

हालांकि पहाड़ के हालात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के देहातों से अलग है लेकिन इस गहराते असंतुलन के कुछ तो सामाजिक दुष्परिणाम यह भी सामने आएँगे मसलन कुछ लोग बेटों की शादी के लिए कर्ज लेकर भी शहर में मकान या प्लॉट का सौदा करने के लिए विवश होंगे और इस तरह पहाड़ से पलायन का पहिया कुछ और तेज हो सकता है। 

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