दोस्तों, उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में होली का त्योहार केवल रंगों और हंसी-खुशी का आयोजन नहीं होता, बल्कि यह वहां की संस्कृति, परंपराओं और जड़ों से जुड़ने का एक माध्यम बन जाता है। जब शहरों में रहने वाले लोग अपने गांवों से दूर होते हैं, तो उनके लिए यह त्योहार एक भावनात्मक पुल की तरह काम करता है। खासकर जब ये त्योहार उनके घरों तक, उनके दिलों तक पहुंचता है, तब यह केवल एक उत्सव नहीं बल्कि एक चेतावनी बन जाती है – अपने मूल से जुड़े रहना महत्वपूर्ण है।
गांव से शहर की ओर: एक भावुक यात्रा
पैठाणी क्षेत्र के कुछ युवाओं ने इस बार होली के त्योहार को एक नई दिशा दी। शहरों में अपना जीवन बसाने के बाद, जब ये युवा अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक जड़ों से कटने लगे थे, तो उन्होंने शहर में रहने वाले अन्य प्रवासी उत्तराखंडियों को अपने गाँव की होली का अहसास कराने का निर्णय लिया। इन युवाओं का उद्देश्य केवल रंगों से खेलने का नहीं था, बल्कि उनका प्रयास था उन यादों को ताजा करना जो गांव के जीवन से जुड़ी होती हैं।
‘रिवर्स प्लान’: गांव की होली शहर तक
यह पहल ‘रिवर्स प्लान’ के रूप में सामने आई, जहां ये युवा अपने गांव की होली और संस्कृति को लेकर शहर में आये। उनका मानना था कि अगर लोग अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं, तो उन्हें यह याद दिलाना आवश्यक है कि “गांव सिर्फ ज़मीन का टुकड़ा नहीं, यह हमारी पहचान है।” इस पहल के माध्यम से इन युवाओं ने शहरवासियों को यह संदेश दिया कि हमें अपनी संस्कृति को फिर से गले लगाना चाहिए और अपनी जड़ों से जुड़ा रहना चाहिए।
गीतों में संस्कृति, संदेश में अपनापन
पहाड़ के होलियार टीम ने देहरादून में सबको किया भावुक…..
इन युवाओं ने जो गीत लिखे, उनमें केवल सुर और ताल नहीं, बल्कि उन गीतों के माध्यम से एक पूरी पीढ़ी की यादें और भावनाएं समाहित थीं। “पुरानी देवी गया तुमरी, खता वाला ज्ञान पुरानी…” जैसे गीतों ने न केवल देहरादून की गलियों में गूंजन शुरू की, बल्कि यह गीत उन सभी प्रवासी उत्तराखंडियों के दिलों तक पहुंच गए, जो अपने गांव और संस्कृति से दूर हो गए थे। जब ये युवा पारंपरिक वस्त्रों में सजधजकर ढोल-दमाऊ की धुन पर नाचते और गाते हुए सामने आए, तो वहां मौजूद बुजुर्गों की आंखों में आंसू थे और उनके मुंह से बस यही शब्द निकल रहे थे – “अब शब्द नहीं हैं कहने को।”
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संस्कृति को बचाने की पहल
इस टीम ने केवल होली खेलने का ही नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने का भी संकल्प लिया। उनका कहना था कि “अगर हम तीन दिन और ऐसी होली खेलेंगे, तो कई लोग फिर से गांव लौटने का मन बना लेंगे।” यह संदेश सिर्फ एक त्योहार की बात नहीं कर रहा था, बल्कि यह अपने अस्तित्व और पहचान को पुनः जीवित करने की एक पहल थी। इन युवाओं का मानना था कि केवल शहरी जीवन में रंगीन त्योहार मनाने से कुछ नहीं होगा, बल्कि हमें अपने गांव, अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे।
भविष्य की योजना: डिजिटल रास्ते से गांव की ओर
अब इन युवाओं का अगला कदम है कि वे अपने गीतों को डिजिटल प्लेटफार्मों पर रिलीज़ करेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके गीतों और संदेश से जुड़ सकें। इस टीम में कुछ कलाकार ऐसे भी थे जिन्होंने रामलीला में अभिनय किया था, और अब वे सामाजिक जागरूकता फैलाने के लिए इस पहल का हिस्सा बने थे। इन गीतों के माध्यम से इनका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक जागरूकता और शिक्षा का एक ज़रिया बन चुका था।
FAQs
1. ये टोली कहां से आई थी?
यह टोली उत्तराखंड के पैठाणी क्षेत्र और आसपास के गांवों से आई थी।
2. इनका मकसद क्या था?
गांवों की संस्कृति को शहरों तक पहुंचाना और पलायन का उल्टा संदेश देना – “गांव लौटो।”
3. क्या यह हर साल होगा?
अगर लोगों का साथ और सहयोग मिला तो ये परंपरा हर साल निभाई जाएगी।
4. क्या इन गानों को ऑनलाइन सुना जा सकता है?
हाँ, इनका यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया आईडी जल्दी शुरू की जाएगी जहां ये गाने पोस्ट किए जाएंगे।
5. टीम में कौन-कौन थे?
इस टोली में 18 युवा शामिल थे, जिनमें से कुछ रामलीला के कलाकार, म्यूजिक मास्टर, और छात्र हैं।
6. क्या ये परंपरा दूसरे राज्यों में भी दोहराई जा सकती है?
बिलकुल, अगर स्थानीय लोग चाहें तो हर राज्य अपनी संस्कृति को इस तरह प्रमोट कर सकता है।
7. क्या सरकार या कोई संगठन इनका सहयोग कर रहा है?
फिलहाल यह पूरी तरह युवाओं की खुद की कोशिश है, लेकिन सरकारी या सामाजिक सहयोग से इसे और बड़ा रूप दिया जा सकता है।
निष्कर्ष: संस्कृति को सहेजना, पहचान को बचाना
इस होली ने केवल रंग नहीं फैलाए, बल्कि यह एक मजबूत संदेश लेकर आया – “आओ, गांव लौट चलें… अपनी संस्कृति को फिर से गले लगाएं।” यह पहल उन सभी युवाओं के लिए एक प्रेरणा है जो अपने गांवों से दूर हैं, लेकिन उनके दिलों में पहाड़ की यादें हमेशा बसी हुई हैं। अगर हम अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य देना चाहते हैं, तो हमें उन्हें अपनी जड़ों से जोड़ना होगा, और त्योहार वह माध्यम है जो दिलों को जोड़ने का काम करता है।
यह लेख होली के त्योहार को, उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को और उन युवाओं के प्रयासों को न केवल सम्मानित करता है, बल्कि यह संदेश भी देता है कि हमें अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलना चाहिए।
दोस्तों, अगर आप भी उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर, त्योहारों और परंपराओं के बारे में और जानना चाहते हैं, तो Pahadi Suvidha पर ऐसे और भी दिलचस्प आर्टिकल्स पढ़ें।
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